चिराग पासवान बनाम पशुपति कुमार पारस की लड़ाई में लोजपा का असली वारिस कौन? क्या कहते हैं नियम?

बिहार की राजनीति में सोमवार सुबह से शुरू हुआ सियासी संघर्ष फ़िलहाल थमता हुआ नहीं दिख रहा है. लुटियंस दिल्ली के बंगलों में एलजेपी नेताओं के बीच पड़ी फूट का असर अब पटना की सड़कों पर दिखने लगा है. मंगलवार शाम से पटना में चिराग समर्थक एलजेपी कार्यकर्ताओं का बाग़ी सांसदों के ख़िलाफ़ विरोध जारी है. चिराग पासवान ने बुधवार सुबह लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला को पत्र लिखकर सोमवार को लिए गए अपने फ़ैसले पर पुनर्विचार करने और चिराग पासवान को सदन में पार्टी का नेता घोषित करने की अपील की है. इसके साथ ही उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके कहा है कि वह ही पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं और “यह पद सिर्फ़ दो परिस्थितियों मंं खाली हो सकता है, जब राष्ट्रीय अध्यक्ष का निधन हो जाए या राष्ट्रीय अध्यक्ष स्वयं इस्तीफ़ा दे दे.” दोनों गुट किस चीज़ का दे रहे हैं हवाला दूसरी तरफ़ हाज़ीपुर से सांसद पशुपति कुमार पारस गुट के प्रवक्ता श्रवण कुमार ने बीबीसी से कहा, "चिराग पासवान के पास हमारे फ़ैसले को चुनाव आयोग या सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का अधिकार है. वो जहाँ चाहें वहाँ जा सकते हैं." ऐसे में अब तक इस मामले में जो कुछ सामने आया है, उससे एक चीज़ साफ़ हो चुकी है कि पूर्व केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी अब दो गुटों में बंट चुकी है. एक धड़ा उनके बेटे चिराग पासवान के साथ है, वहीं दूसरा धड़ा उनके भाई पशुपति कुमार पारस के साथ है. दोनों गुट ख़ुद को असली एलजेपी का दावेदार बता रहे हैं. निर्वाचित सांसदों की संख्या के लिहाज़ से संख्या बल में पारस गुट का पलड़ा भारी है. उनके पास इस समय पाँच सांसद हैं. और चिराग गुट के पास खुद चिराग पासवान के रूप में एक सांसद है. लेकिन चिराग पासवान गुट पार्टी संविधान का सहारा लेता हुआ दिख रहा है. चिराग गुट के नेता और एलजेपी के महासचिव अब्दुल ख़ालिक़ ने बीती शाम एक पत्र जारी करके बताया है कि पार्टी ने मंगलवार शाम चार बजे ज़ूम ऐप पर आयोजित राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में बाग़ी सांसदों को पार्टी से निकालने का फैसला किया है. ख़ालिक़ ने राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के बाद बीबीसी को बताया, “चिराग पासवान वर्तमान में भी राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं और बैठक में बाग़ी सांसदों को निकाल दिया गया है.” ऐसे में सवाल उठता है कि पार्टी में दो फाड़ होने की स्थिति में फैसला किसके हक़ में जाएगा? पार्टी किसकी - कैसे होगा फ़ैसला? ये पहला मौक़ा नहीं है जब एक राजनीतिक पार्टी से जुड़े परिवार के लोग राजनीतिक विरासत के लिए एक दूसरे के सामने आए हों. इससे पहले उत्तर प्रदेश में अखिलेश बनाम शिवपाल, आंध्र प्रदेश में एनटीआर बनाम चंद्रबाबू नायडु, तमिलनाडु में जयललिता बनाम जानकी और हरियाणा में चौटाला परिवार में जंग किसी से छिपी नहीं है. लेकिन चिराग पासवान बनाम पशुपति कुमार पारस मामले में किसका पलड़ा भारी है? बीबीसी ने इसी सवाल को जानने के लिए पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त डॉ. एसवाई क़ुरैशी से बात की. डॉ. क़ुरैशी कहते हैं, “जब कोई पार्टी दो हिस्सों में बंट जाती है, तो दोनों गुट चुनाव आयोग के पास जाते हैं और स्वयं के बहुमत में होने का दावा करते हैं. ऐसी स्थिति में चुनाव आयोग दोनों पक्षों को बुलाकर मामले की सुनवाई करता है. इस प्रक्रिया में आयोग सबूत देखता है, विधायकों और सांसदों की गिनती की जाती है. ये देखा जाता है कि बहुमत किस ओर है. देखा जाता है कि पार्टी के ऑफिस बियरर्स में बहुमत किधर है. इसके बाद जिसके पास बहुमत होना सिद्ध होता है, उसी गुट को पार्टी माना जाता है.” बिहार विधानसभा या विधान परिषद में लोक जनशक्ति पार्टी के पास एक भी सदस्य नहीं है. हालांकि, लोकसभा में पार्टी के पास छह सांसद हैं जिनमें से पाँच पारस गुट में हैं. ऐसे में संख्या बल के लिहाज़ से पारस गुट मज़बूत स्थिति में नज़र आ रहा है. पार्टी का संविधान कितना अहम? चिराग गुट लगातार ये दावा कर रहा है कि लोक जनशक्ति पार्टी का संविधान उनके पक्ष में है. ऐसे में सवाल उठता है कि चुनाव आयोग, किसी पार्टी के संविधान को किस तरह देखता है और संख्या बल वाले गुट को पार्टी के रूप में स्वीकार क्यों करता है. इस अहम सवाल का जवाब पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत देते हैं. वे कहते हैं, “भारत के संविधान में राजनीतिक पार्टी का ज़िक्र ही नहीं है. ऐसे में जब एसपी सिंह वर्मा तीसरे मुख्य चुनाव आयुक्त बने, फिर साल 1967 के बाद ये समस्या शुरू हुई कि पार्टियां टूट सकती हैं. ऐसे में उन्होंने एक चुनाव चिह्न आदेश तैयार किया जिसे ‘सिंबल्स ऑर्डर 1968’ कहते हैं." "यही आदेश अभी तक चल रहा है. इसे किसी क़ानून में नहीं बदला गया है. आपको याद होगा कि इसके तुरंत बाद कांग्रेस में विभाजन हो गया था. इस आदेश में सब कुछ स्पष्ट है जिसे सुप्रीम कोर्ट ने भी स्वीकार किया है. आदेश का पैरा 16 कहता है कि किसी भी पार्टी के विभाजन में तीन चीज़ें महत्वपूर्ण हैं. पहला चुने हुए प्रतिनिधि किस तरफ हैं, दूसरे ऑफिस बियरर्स किस तरफ हैं, और तीसरी संपत्तियां किस तरफ हैं. लेकिन किस धड़े को पार्टी माना जाए इसका फैसला सिर्फ चुने हुए प्रतिनिधियों के बहुमत के आधार पर होता है. जिस तरफ चुने हुए प्रतिनिधि होंगे, वही पार्टी होगी. इससे पहले समाजवादी पार्टी में विभाजन हुआ तो चुनाव आयोग ने अखिलेश यादव के गुट को स्वीकार किया था.” वहीं, पार्टी के संविधान की अहमियत पर रावत कहते हैं, “जब पार्टी का बंटवारा हो ही जाता है, फिर पार्टी के संविधान की भूमिका अहम नहीं रह जाती है.” छोड़िए YouTube पोस्ट, 2 चिराग अब क्या कर सकते हैं? ऐसे में सवाल उठता है कि चिराग पासवान के पास क्या विकल्प शेष हैं. संवैधानिक मामलों के जानकार सुभाष कश्यप बताते हैं, “जब भी कोई पार्टी पंजीकृत होती है तो उन्हें चुनाव आयोग को एक पार्टी संविधान देना होता है. पार्टी में सदस्यों को निकाला जाना हो, उनका निलंबन हो, नेतृत्व में बदलाव हो, या राष्ट्रीय अध्यक्ष को बदलना हो, ये सब पार्टी के संविधान के अनुसार होना चाहिए. अगर ये सब संविधान के अनुसार नहीं हुआ है तो चुनाव आयोग जाया जा सकता है. इसके साथ ही अधिकारों के हनन की याचिका के साथ कोर्ट भी जा सकते हैं. "ये बात तो हुई पार्टी के संविधान की. दूसरा मामला भारत के संविधान से जुड़ा है. दल बदल कानून के तहत, जो जिस पार्टी के चुनाव चिह्न से चुनाव लड़कर संसद पहुंचा है, वह उसी पार्टी के माने जाएंगे. चाहें पार्टी उन्हें निकाल दे या निलंबित कर दे. जब तक वे सदस्य हैं तब तक वे उसी पार्टी के माने जाएंगे जिसके चुनाव चिह्न पर वे चुनकर आए हैं. दल-बदल कानून के तहत इन सांसदों के ख़िलाफ़ कार्रवाई के लिए स्पीकर को याचिका देनी होगी.” ऐसे में सवाल उठता है कि चिराग पासवान या पारस गुट पार्टी संविधान में अपने अधिकार में हनन के मामले को लेकर क्या कर सकता है. सुभाष कश्यप बताते हैं, “चुनाव चिह्न के मामले में अंतिम फैसला चुनाव आयोग का होगा. लेकिन संविधान में अधिकारों के हनन की बात करते हुए दोनों पक्ष सुप्रीम कोर्ट जा सकते हैं.” ऐसे में राजनीतिक घराने की ये लड़ाई आने वाले दिनों में चुनाव आयोग और कोर्ट में पहुँच सकती है.

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